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राजस्थानी भाषा के भीष्म पितामह- महाकवि कन्हैया लाल सेठिया

हस्ताक्षर
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kl sethia

“अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।

नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।”

बचपन से ही अपने बड़ों से ये गीत हमेशा सुनता आया था जो सुनते ही जाने क्यूँ एक सिहरन सी दौड़ जाती पूरे बदन में और आँखों के सामने इतिहास के महान पात्र महाराणा प्रताप की छवि सदृश्य हो आती. शरीर में ओज भाव संचरित होने लगता. उस वक्त तक नहीं पता था कि ये कालजयी रचना किस महापुरुष की कलम से निकली है. जब स्वयं स्कूल में आया तो मुझे अच्छी तरह याद है वो कक्षा सात थी और यहीं से अपने कोर्स में इन महान शख्शियत के बार में पढ़ा, तभी से जहन से ये नाम कभी मिटा ही नहीं और वो नाम था राजस्थानी भाषा के भीष पितामह श्री कन्हैया लाल सेठिया का.

महाकवि श्री कन्हैयालाल सेठिया जी की राजस्थानी कविताएँ ना केवल राजस्थान बल्कि सम्पूर्ण देश में पढ़ी और सराही गईं. श्री सेठिया ही थे जिनकी इन कालजयी रचनाओं से राजस्थानी भाषा की गूँज देश के कोने-कोने तक पहुंची और उनकी कालजयी रचनाओं ने राजस्थानी भाषा को और अधिक पुष्ट करने के साथ-साथ हिंदी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाईयों का ध्यान राजस्थानी की और आकर्षित किया. इस महाकवि की कविताओं और गीतों ने राजस्थानी भाषा की मिठास और ओजपूर्ण अभिव्यक्ति से समूचे साहित्य जगत को आश्चर्यचकित कर दिया. इस सम्बन्ध में बालकवि बैरागी को भी कहना पड़ा “मैं महामनीषी श्री कन्हैयालालजी सेठिया की बात कर रहा हूँ। अमर होने या रहने के लिए बहुत अधिक लिखना आवश्यक नहीं है। मैं कहा करता हूँ कि बंकिमबाबू और अधिक कुछ भी नहीं लिखते तो भी मात्र और केवल ‘वन्दे मातरम्’ ने उनको अमर कर दिया होता। तुलसी – ‘हनुमान चालिसा’ , इकबाल को ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ जैसे अकेला एक गीत ही काफी था। रहीम ने मात्र सात सौ दोहे यानि कि चौदह सौ पंक्तियां लिखकर अपने आप को अमर कर लिया। ऎसा ही कुछ सेठियाजी के साथ भी हो चुका है, वे अपनी अकेली एक रचना के दम पर शाश्वत और सनातन है, चाहे वह रचना राजस्थानी भाषा की ही क्यों न हो।”

इतिहास कुछ भी कहे मगर ये शाश्वत सत्य है कि श्री सेठिया जी की राजस्थानी रचनाओं ने ही राजस्थानी भाषा को गंभीरतापूर्वक पढ़ने को उद्धृत करने के साथ-साथ अपनी कविता के माध्यम से राजस्थान के उस प्राचीन और गौरवशाली अतीत को भी इन पंक्तियों से जगाने का प्रयास भी किया –

किस निद्रा में मग्न हुए हो, सदियों से तुम राजस्थान् !

कहाँ गया वह शौर्य्य तुम्हारा,कहाँ गया वह अतुलित मान !

राजस्थानी भाषा के इस महान संत, भीष्म पितामह और महाकवि ने राजस्थानी के जो किया उसे आने वाली संकड़ों पीढियां कभी भुला नहीं पायेगी और युगों-युगों तक इस महान विभूति की कालजयी रचनाएँ ना केवल राजस्थानी बल्कि समूचे हिंदी साहित्य जगत को भी आलोकित करती रहेगी. ये बात और है कि पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी साहित्य पुरास्कार से सम्मानित इस महाकवि ने राजस्थानी के लिये कभी ना भुलाए जाने वाला योगदान किया मगर अफ़सोस, स्वयं राजस्थान सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस और प्रगतिशील प्रयास अब तक नहीं किया.

उन्ही द्वारा रचित गीत, जो राजस्थान की वंदना का पर्याय बन चुका है. जिसको सुनते ही पाँव नाचने को उद्धृत हो जाते हैं, नस-नस में उन्माद सा भर जाता है, हर आयु वर्ग को जो मदमस्त कर देने की क्षमता रखता है, जिसके बोल होठों से कभी लुप्त नहीं हो पाते, ऐसी कालजयी रचना अभी तक किसी और भाषा के कवियों में शायद ही कहीं देखने को मिली है जिसमे राजस्थान की मीठी बोली और रंग-रगीली संस्कृति की झलक तप्त रेगिस्तान में भी सावन की भीनी-भीनी बयारों सी गुदगुदाहट से भर देती है.

नरेन्‍द्र व्‍यास

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